सोमनाथ मंदिर हिन्दू धर्म के उत्थान और पतन के इतिहास का प्रतीक रहा है। अत्यन्त वैभवशाली होने की वजह से इस मंदिर को कई बार तोड़ा गया, लूटा गया, विध्वंश किया गया।
हालांकि, बाद में कई बार इसका पुनर्निर्माण भी करवाया गया। आज यह इतिहास को अपने आप में समेटे हुए अरब सागर के तट पर तना खड़ा है।
हिन्दू मान्यताओं के मुताबिक, सोमनाथ मंदिर का निर्माण चन्द्रदेव ने किया था। इसका उल्लेख पवित्र ऋग्वेद में भी मिलता है। यहां भगवान शिव के द्वादश ज्योर्तिलिंगों में सर्वप्रथम ज्योर्तिलिंग अवस्थित है।
सोमनाथ मंदिर कब बना था, इसका कोई लिखित इतिहास मौजूद नहीं है। लेकिन मान्यताओं के मुताबिक, यहां ईसापूर्व मंदिर अस्तित्व में था। बाद में सातवीं सदी में वल्लभी के मैत्रक राजाओं ने इसका पुनर्निर्माण करवाया। इसके बाद ही यह भव्य मंदिर विदेशी अरबी, मुस्लिम आक्रान्ताओं का शिकार होता रहा था।
8वीं सदी में सिन्ध के अरबी गवर्नर जुनायद ने इसे नष्ट करने के लिए अपनी सेना भेजी। इस मंदिर को पूरी तरह नेस्तनाबूत कर दिया गया।
सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण का बीड़ा उठाया प्रतिहार राजा नागभट्ट ने। उन्होंने 815 ईस्वी में इसका तीसरी बार पुनर्निर्माण किया। इस मंदिर की कीर्ति दूर-दूर तक फैली।
अरब यात्री अल-बरुनी ने अपने यात्रा वृतान्त में इसका विवरण लिखा। इससे प्रभावित होकर महमूद ग़ज़नवी ने 1024 में करीब 5 हजार लोगों के साथ सोमनाथ के मंदिर पर हमला कर दिया। मंदिर की अपार संपदा को लूट लिया गया। हजारों लोगों का कत्ल कर दिया गया।
इस मंदिर का चौथी बार पुनर्निर्माण हुआ। इस बार इसे बनवाया मालवा के राजा भोज ने। अलाउदीन खिलजी की सेना ने गुजरात पर कब्जा कर इस मंदिर को 1297 में एक बार फिर लूटा। बाद में 1706 में मुगल बादशाह औरंगजेब ने सोमनाथ के मंदिर को पूरी तरह रौंद डाला।
इस समय जो मंदिर खड़ा है उसे भारत के प्रथम गृह मन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने बनवाया और पहली दिसंबर 1995 को भारत के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने इसे राष्ट्र को समर्पित किया।
पौराणिक हिन्दू कथाओं के अनुसार, इस मंदिर का निर्माण चन्द्र देवता ने करवाया था। इसी वजह से इसका नाम सोमनाथ पड़ा। चन्द्र देव को सोम भी कहा जाता है।
अन्य मान्यताओं के मुताबिक भगवान श्रीकृष्ण ने इसी क्षेत्र में अपना देह-त्याग किया था। सोमनाथ के भव्य मंदिर से कुछ ही दूरी पर स्थित है भालुका तीर्थ।
कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण यहां विश्राम कर रहे थे, तब शिकारी ने उनके पैर के अंगूठे को हिरण की आंख जानकर धोखे में तीर मारा था। श्रीकृष्ण ने यहां देह-त्याग कर वैकुन्ठ गमन किया।